शासकीय महाविद्यालयों के सहायक प्राध्यापक, प्राध्यापक भर्ती परीक्षा में पात्रता की विसंगति में फंसे, सहायक अध्यापकोंं का कहना है कि शासन से कब मिलेगा न्याय।।
पेंड्रा/ रायपुर। छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग के द्वारा हाल ही में जारी किए गए महाविद्यालय प्रोफेसर पद हेतु विज्ञापन ने राज्य के सैकड़ों योग्य प्राध्यापकों को असमंजस की स्थिति में डाल दिया है। विज्ञापन में पात्रता की शर्तों में “और/अथवा” का उपयोग किया गया है, जिसकी अस्पष्ट व्याख्या के कारण अनेक अभ्यर्थियों के साथ अन्याय की स्थिति निर्मित हो रही है। दरअसल पूरा मामला उम्मीदवार के पास संबंधित विषय में पीएचडी की उपाधि, शोध प्रकाशन और 120 से अधिक शोध अंक होने चाहिए।।।
साथ ही विश्वविद्यालय/महाविद्यालय में 10 वर्ष का शिक्षण अनुभव और/अथवा डॉक्टरेट शोधार्थियों का सफल मार्गदर्शन होना चाहिए। लेकिन दस्तावेज़ सत्यापन के समय कई उम्मीदवारों को यह कहकर आपत्ति दी गई कि“ आपके मार्गदर्शन में किसी भी अभ्यर्थी ने पीएचडी पूर्ण नहीं की है।” वहीं सवाल यह उठता है कि यदि और/अथवा” को केवल “अथवा” के रूप में माना जाए, तो प्रकाशन कार्य और अनुभव के आधार पर उम्मीदवार स्वतः पात्र हो जाते हैं। लेकिन यदि इसे केवल और” के रूप में लिया जाए, तो यह संविधान के अनुच्छेद 16 (समान अवसर का अधिकार) का उल्लंघन है, क्योंकि छत्तीसगढ़ के अधिकांश विश्वविद्यालयों में अभी तक शोध केंद्र स्थापित ही नहीं हुए हैं।।।।
अनेक शासकीय महाविद्यालय रिसर्च सेंटर ही नहीं हैं, ऐसे में वहाँ कार्यरत प्राध्यापकों को शोधार्थी आबंटित होना असंभव है। विश्वविद्यालयों के पुनर्गठन के कारण पंजीकृत सुपरवाइजर्स की सुपरवाइजरशिप अचानक समाप्त हो गई। नई विश्वविद्यालयों जैसे शहीद नंदकुमार पटेल विश्वविद्यालय, रायगढ़) में अभी तक शोध कार्य प्रारंभ ही नहीं हुआ है, जिससे वहाँ पदस्थ प्राध्यापक मार्गदर्शन देने से वंचित हैं। वहीं इन परिस्थितियों में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि शोधार्थियों का आबंटन न होना या विश्वविद्यालयों में शोध कार्य प्रारंभ न होना इसमें प्राध्यापकों का क्या दोष है?।।
1. योग्य प्राध्यापकों के साथ अन्याय।।।
राज्य के अनेक सहायक प्राध्यापक और सह-प्राध्यापक वर्षों से महाविद्यालयों में सेवा दे रहे हैं। उन्होंने उच्च गुणवत्ता वाले शोधपत्र प्रकाशित किए हैं, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में भाग लिया है, लेकिन केवल शोधार्थी मार्गदर्शन की बाध्यता के कारण उनकी मेहनत को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।।।
2. वहीं इस मामले में विशेषज्ञों का क्या है कहना।।
वहीं इस मामले में शिक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि और/अथवा” को लेकर अस्पष्टता दूर करने हेतु राज्य शासन और लोक सेवा आयोग को तुरंत स्पष्टीकरण जारी करना चाहिए। पात्रता शर्तें इस तरह बनाई जाएं कि प्रशासनिक या संरचनात्मक कारणों से कोई योग्य प्राध्यापक वंचित न हो मार्गदर्शन अनुभव को एक अतिरिक्त योग्यता माना जा सकता है, लेकिन इसे बाध्यकारी शर्त बनाना न्यायसंगत नहीं है।
3. मामले में प्राध्यापकों ने की अपील।।
वहीं शासकीय महाविद्यालयों में कार्यरत प्राध्यापकों का कहना है कि हमने वर्षों तक विद्यार्थियों को पढ़ाया है, शोधकार्य में सक्रिय रहे हैं। यदि विश्वविद्यालयों ने शोध केंद्र नहीं बनाए या स्कॉलर आबंटित नहीं किए, तो यह हमारी गलती नहीं है। शासन को चाहिए कि वह इन विसंगतियों को तुरंत दूर कर, योग्य उम्मीदवारों को उनका हक दिलाए।” वहीं सहायक प्रध्यापकों का कहना है कि यह मसला अब केवल कुछ प्राध्यापकों का नहीं, बल्कि राज्य की उच्च शिक्षा व्यवस्था का प्रश्न बन चुका है। यदि योग्य लोग केवल प्रशासनिक अस्पष्टताओं के कारण बाहर कर दिए गए, तो उच्च शिक्षा का भविष्य प्रभावित होगा। वहीं अब देखना यह है कि शासन और लोक सेवा आयोग इस विसंगति को दूर करने के लिए निष्पक्ष निर्णय कब लेते हैं। यह देखने वाली बात होगी।






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PSC और उच्च शिक्षा विभाग, यूजीसी से मार्गदर्शन क्यों नहीं ले लेता। तर्क से देश नहीं चलता है बल्कि विधि शासन से देश चलता है
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